Tuesday, February 8, 2011

shalendraupadhyay

सलीब उठाने का साहस  
कन्धों पर है
मृत्यु का मार्ग !
ढो रहा हूँ उन्हीं कांधों को.
अपने आयाम, अपने विस्तार
छूट चले कहाँ, किस-किस से मिलें
श्मशान का माध्यम, हर तरफ धू-धू !

आज फिर अंकों में खारापन है
किसी मुलाक़ात की स्मृति
किसी मील पत्थर का संकेत
सभी तो हैं मृत्युमार्ग.   

मैं छोड़ चलूं
अपने ही कांधों को.
सलीब उठाने का साहस
हुआ जाता है स्पंदन से विमुख.
मैं मृत्यु हो जाऊं, श्मशान प्रिय ब्रह्म !
ओ ब्रह्म ! तुम फिर कहोगे-
सूरज उजास ही करता है
भविष्यदर्शन की अभिलाषा
भूत के परिणामों के बाद भी.

हर प्रणय की परिणति प्रयाण है / हो
मैं प्रयाण ही तो चाहूँ.
छालों से भरे तलवे
मुक्तिमार्ग में बाधक हो जाते हैं
और फिर से गिर जाता है सलीब.

मैं हो जाऊं अपना सलीब !
सलीब हो; मृत्यु नहीं मुक्ति मार्ग.
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Friday, May 28, 2010

shalendraupadhyay

रिश्ता
उम्र, मंदिर के घण्टे और पुस्तकों के ढ़ेर
ले चले प्रेयसी के पास मुझे .

नहीं दे सका जिसे कोई सम्बोधन
केवल उल्लास , केवल परिहास
वही जो हो रही , सच; सखी .

मैं  भीगा-भीगा सा अपने आप में
उसके गीले बालों से छिटकी बूंदे
                      मुझ तक आ गई
                      और निढाल हो गया मैं .

प्रेयसी तुम ही तो थीं
कितनी पवित्र-सी !
तुम बनी रही किताब की रेशमी डोरी
मैने पढ़ डाले सारे पृष्ठ
लेकिन फिर भी नहीं संजो सका
सुन्दर, सपनीले, फूलों को .

मैं अनिमेष होऊं
होऊं एक चित्र और तुम फिर कहो
पगला गया है बुद्धू .
तुमने सीख लिया है
दीवारों का सजाना .
प्रकृति के पोरों से सनी पराई-पराई प्रीत
                      (ओ ,जो अपनी ही है )
तुम अब तक न सीख पाई .

एक संरचना , खिलाखिलालाने की !

हम कितनी ढीठ हैं
नहीं बोलते , जानते हुए भी_
                          शब्दों को
जिनमें हैं-समझ के साये
कोई चढ़ा जाए जल
और हो जाए अभिषेक
लेकिन हम हैं कि
विमुख हो अभिषेक से
छेड़ दें हर बार नया विषय .
ठहरी हुई झेंप का डर !
फिर आ चला !!

तुम  चलो, सजा लो अपने केश
में देख लूं नाचता मयूर !

यही है शायद
                   हमारा रिश्ता
यही है शायद
                   समझ का रिश्ता .

Wednesday, March 24, 2010

shalendraupadhyay

जीवन संगीत
मत समझो मुझे सारंगी
नहीं चाहता मैं शोक स्वर;
शहनाई की धुन
बांसुरी की थिरकन
सितार का सम
तबले की थाप
आलाप की तान.
........प्रेयसी, मैं यही सब होऊं ! 
मैं और भी कुछ होऊं
ख़याल, ठुमरी, कजरी, चैती के बोल
हर एक में, मैं भटकता फिरूं !!

सखी, अब सीख लो
विलंबित और द्रुत की पहुँच.
सखी, अब सीख लो
सम पर पहुँचने की गुंजाईश.

राग भैरवी से भीगा भोर
किस समय पर लायेगा तारों विहीन रात !
मैं मृत्यु का परिणय नहीं
सरगम का समवेत सार हूँ मैं.
पखेरूओं का कलरव हो जीवन संगीत
और फिर हो; शिव अभिषेक 
तुम धारो कलश, नटराज होऊं मैं.   

Sunday, March 21, 2010

shalendraupadhyay: shalendraupadhyay

shalendraupadhyay: shalendraupadhyay

shalendraupadhyay

निर्लिप्त
बहुत दिन हो गये
पतझड़ फिर भी चला है
सच, पता ही नहीं चला
कैसे चला गया वसंत
तुम्हारा भी नहीं.

शहर में कोई नहीं है
बहरा है शहर,कि गूंगा है शहर
कहीं नहीं है कोई सरसराहट/ स्पंदन
न जीने का कोई रंग !
मुझसे जुदा-जुदा सा है शहर
मैं फिर भी क्यों जीवंत ?

अपने चौबारे में हो कोई आवाज़
और सुन ना सकें हम.
कोई स्वरमंडल, कोई सितार
कोई शहनाई, कोई सारंगी
घर के कोने से गूँजे
और मैं सोया रहूँ/ निर्लिप्त.

बहुत बौराये हैं आम
मैं फिर भी दूर-दूर
कहीं से हो कोई पुकार
मैं फिर भी दूर-दूर.

तुम न लिखना
आह्ट की कविता/मरघट की बात
चौबारे की आवाज़/कमरे का सूनापन.
तुम निर्लिप्त ही रहो
एक तरफ/ अपने तंई .
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Saturday, March 20, 2010

shalendraupadhyay

मत ठहरो समय
लड़ाई अपनी हो कि सब की
सफ़र की नियति नहीं होती
एक उम्मीद-सी बनाते हैं
तन्हा सपनों में देखे दृश्य
साकार कहाँ होंगे_कौन जाने !

नहीं कहा मैंने कि नहीं जाऊंगा मईशागर
लेकिन हो सकता है ऐसा
                          समय से पहले कुछ भी तो नहीं
और कोई चाह ले_
                           समयपूर्व अंतिम प्रहसन.
क्षणभंगुर होना अपराध नहीं
परिणति क्षणभंगुर नहीं होती.

सौदागरों की भीड़ में किसे दें संबोधन
अपने अपने केश संवारने की होड़ में
सभी तो भूल गये/सौदे के भी नियम होते हैं.

अर्थ हो गये अपरिचय 
और सम्बन्धों का सार......निस्सार !
जड़ नहीं हो सकता मैं
हो जाऊं अपरिचय का बिम्ब.
उमस भरी दोपहरी से लौटकर
डूबता है सूरज , फिर उगता है सूरज
यह मृत्यु  तो नहीं.  

मैं , सूरज और मृत्यु
क्यों रचे जायें, क्यों रखें जायें
बंधी-बंधाई परिभाषाओं के आवरण में.
मैं व्याकरण भर होऊं
और मृत्यु; वाक्य-भर
सूरज रहे केवल कारक
मुझे कतई नहीं भाये .

सुबह से चलूँ मैं, विरामहीन मार्ग पर
किसी सांनिन्ध्य के सहारे 
और ठहर जाए समय !

मत ठहरो समय;
आओ उत्सर्ग को आयाम दें
एक भूली स्मृति को
एक संजीदा अहसास को
कि फिर जी उठे कोई
इस सफ़र को कोई अच्छा-सा नाम दें !
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मईशागर (माही सागर; दक्षिणी राजस्थान की मुख्य नदी)


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Friday, March 19, 2010

shalendraupadhyay

मैं सन्दर्भ हूँ
तख्तियाँ मत टांगो
घर कहीं खो नहीं जाएगा.

हवा का रुख
सूरज की रोशनी
धरती की सतह
किसी की बपोइती  नहीं होती.

शब्दकोष फट जाएँ
और आँखों में उतर आए खून !
किसी अजनबी से मिलकर
बचपन का रोना याद जाए !!

मधुशाला से लौटी स्मृति
गली के आखिर में बना घर
गंदे कागज़ पर छपी इबारत
नहीं हो सकती मेरी परिभाषाएं.

मैं समय नहीं 
मैं स्थिर नहीं
मैं परम्परा नहीं
सन्दर्भ हूँ मैं.

अनचीन्हे आशियाने
नहीं होते किसी भी तरह के ठहराव !
पंछी-तुम न उड़ो
                        इस शहर से.
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