Wednesday, March 24, 2010

shalendraupadhyay

जीवन संगीत
मत समझो मुझे सारंगी
नहीं चाहता मैं शोक स्वर;
शहनाई की धुन
बांसुरी की थिरकन
सितार का सम
तबले की थाप
आलाप की तान.
........प्रेयसी, मैं यही सब होऊं ! 
मैं और भी कुछ होऊं
ख़याल, ठुमरी, कजरी, चैती के बोल
हर एक में, मैं भटकता फिरूं !!

सखी, अब सीख लो
विलंबित और द्रुत की पहुँच.
सखी, अब सीख लो
सम पर पहुँचने की गुंजाईश.

राग भैरवी से भीगा भोर
किस समय पर लायेगा तारों विहीन रात !
मैं मृत्यु का परिणय नहीं
सरगम का समवेत सार हूँ मैं.
पखेरूओं का कलरव हो जीवन संगीत
और फिर हो; शिव अभिषेक 
तुम धारो कलश, नटराज होऊं मैं.   

Sunday, March 21, 2010

shalendraupadhyay: shalendraupadhyay

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shalendraupadhyay

निर्लिप्त
बहुत दिन हो गये
पतझड़ फिर भी चला है
सच, पता ही नहीं चला
कैसे चला गया वसंत
तुम्हारा भी नहीं.

शहर में कोई नहीं है
बहरा है शहर,कि गूंगा है शहर
कहीं नहीं है कोई सरसराहट/ स्पंदन
न जीने का कोई रंग !
मुझसे जुदा-जुदा सा है शहर
मैं फिर भी क्यों जीवंत ?

अपने चौबारे में हो कोई आवाज़
और सुन ना सकें हम.
कोई स्वरमंडल, कोई सितार
कोई शहनाई, कोई सारंगी
घर के कोने से गूँजे
और मैं सोया रहूँ/ निर्लिप्त.

बहुत बौराये हैं आम
मैं फिर भी दूर-दूर
कहीं से हो कोई पुकार
मैं फिर भी दूर-दूर.

तुम न लिखना
आह्ट की कविता/मरघट की बात
चौबारे की आवाज़/कमरे का सूनापन.
तुम निर्लिप्त ही रहो
एक तरफ/ अपने तंई .
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Saturday, March 20, 2010

shalendraupadhyay

मत ठहरो समय
लड़ाई अपनी हो कि सब की
सफ़र की नियति नहीं होती
एक उम्मीद-सी बनाते हैं
तन्हा सपनों में देखे दृश्य
साकार कहाँ होंगे_कौन जाने !

नहीं कहा मैंने कि नहीं जाऊंगा मईशागर
लेकिन हो सकता है ऐसा
                          समय से पहले कुछ भी तो नहीं
और कोई चाह ले_
                           समयपूर्व अंतिम प्रहसन.
क्षणभंगुर होना अपराध नहीं
परिणति क्षणभंगुर नहीं होती.

सौदागरों की भीड़ में किसे दें संबोधन
अपने अपने केश संवारने की होड़ में
सभी तो भूल गये/सौदे के भी नियम होते हैं.

अर्थ हो गये अपरिचय 
और सम्बन्धों का सार......निस्सार !
जड़ नहीं हो सकता मैं
हो जाऊं अपरिचय का बिम्ब.
उमस भरी दोपहरी से लौटकर
डूबता है सूरज , फिर उगता है सूरज
यह मृत्यु  तो नहीं.  

मैं , सूरज और मृत्यु
क्यों रचे जायें, क्यों रखें जायें
बंधी-बंधाई परिभाषाओं के आवरण में.
मैं व्याकरण भर होऊं
और मृत्यु; वाक्य-भर
सूरज रहे केवल कारक
मुझे कतई नहीं भाये .

सुबह से चलूँ मैं, विरामहीन मार्ग पर
किसी सांनिन्ध्य के सहारे 
और ठहर जाए समय !

मत ठहरो समय;
आओ उत्सर्ग को आयाम दें
एक भूली स्मृति को
एक संजीदा अहसास को
कि फिर जी उठे कोई
इस सफ़र को कोई अच्छा-सा नाम दें !
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मईशागर (माही सागर; दक्षिणी राजस्थान की मुख्य नदी)


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Friday, March 19, 2010

shalendraupadhyay

मैं सन्दर्भ हूँ
तख्तियाँ मत टांगो
घर कहीं खो नहीं जाएगा.

हवा का रुख
सूरज की रोशनी
धरती की सतह
किसी की बपोइती  नहीं होती.

शब्दकोष फट जाएँ
और आँखों में उतर आए खून !
किसी अजनबी से मिलकर
बचपन का रोना याद जाए !!

मधुशाला से लौटी स्मृति
गली के आखिर में बना घर
गंदे कागज़ पर छपी इबारत
नहीं हो सकती मेरी परिभाषाएं.

मैं समय नहीं 
मैं स्थिर नहीं
मैं परम्परा नहीं
सन्दर्भ हूँ मैं.

अनचीन्हे आशियाने
नहीं होते किसी भी तरह के ठहराव !
पंछी-तुम न उड़ो
                        इस शहर से.
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Tuesday, March 16, 2010

shalendraupadhyay

शव
दरवाज़े पर दस्तक होती है
जब भी जाता है कोई शव मेरी गली से
चलो-तुम्हारा भी काल आ गया.

मैं, शव, गली और दरवाज़ा !
क्यों जुड़े हैं आपस में इस तरह
सोचता रहा जाता हूँ देर रात तक
और  आ जाती है चुपके से नींद.
नींद तनाव को ढीला करती होगी/
                      होगी विश्राम देती
किसी और के लिए
बडबडाता हूँ मैं तो नींद में/
                 उन्नीन्दें सपनों की भरमार से.
और उचट जाती है नींद !

नींद में देखे सपने
क्या होते हैं किसी की घटनाएं ?
                 दोपहर भर का मायाजाल-?
मुझे नहीं पता.
मैं तो तनाव को ही भोगता हूँ
तुम्हारी स्मृति भी आती है बीच-बीच में
और मीठी हो जाती है नींद.
मैं, नींद और तुम्हारी स्मृति
सभी तो एक समीकरण हैं/
                  गणित के ही नहीं
जो नहीं हो सकते हल/
                     कभी-भी 
अकेले-अकेले.

सत्य में भी तुम्हें ही ढूँढता हूँ/
                 जब सब होता है सामान्य
ताकि शव देखते समय
मुझे देखो तुम
और कर सको हल, गणित
मेरे सपनों का, मेरे तनावों का.

नहीं झुठलाता सच को/
       .......................मैं;
क्योंकि एक शव ही हूँ मैं भी
                 .................शव
जीवित ही सही.
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Monday, March 15, 2010

shalendraupadhyay: shalendraupadhyay

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shalendraupadhyay

संबोधन मत बदलो
मिट्टी के महल नहीं बनते
जीवन मिट्टी है.

बंजारे घर बाँधकर
नहीं बैठते एक ठौर.

कभी नहीं बुन सकते, हवा में ताने-बाने
मिट्टी और घर को छोड़कर .
हवा में उड़े तिनकों का ढेर भी
नहीं टिकता.
और हवा नियति है/ घर प्रकृति
मैं तो तिनका भर.

मैं नियति नहीं हूँ तुम्हारी
मत बदलो संबोधन बार-बार
संबोधन बदलने से नहीं टिकते हैं सम्बन्ध.
मैं शाश्वत तलाशूँ
और तुम रचो परिभाषाएं बार-बार.

लोट आओ तुम धरातल पर
मैं या तो धरातल हूँ
या शून्य.

टूटने से अच्छा है
सम्बन्धों की दिशाएँ बदल लें.

जाओ तुम कहीं ओर
दिशाओं के बिखरने से पहले.
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Friday, March 12, 2010

shalendraupadhyay

चिड़िया और चींटी के नाम  
जब भी कहा है मैंने
चिड़ियों से उड़ने को
चींटियों से चलने को
और मेरे साथ
मेरे घर तक आने को
तब-तब हंसी उड़ाई उन्होंने
मेरे आमंत्रण पर.
चिड़िया चहक-चहक कर कहती है_
चले जाओ हमारे पास से.

बहुत पूछा मैंने उनसे
रूठने का कारण
लेकिन हर बार मिली चुप्पी ही
उनके चेहरों पर.

मैंने भी तय किया
किसी जन्म में, मैं भी बनूंगा
चिड़िया या चींटी
ताकि बचा रहूँ
...................बाहरी बुलावों से
और घूम सकूं
            .......स्वछंद
हर आमंत्रण से निर्विकार.
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Wednesday, March 10, 2010

shalendraupadhyay: shalendraupadhyay

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   संबंधों की तलाश  
छू गई सर्द हवा मेरे तन-मन को
और सिमट गया माटी का ढांचा
हथियारों की तरह किटकिटाने लगे दांत
संबंधों की तरह कांपने लगी काया
और अंत में;
मैं मर गया.

कुछ भी कह लो
कैसे जी सकते हैं हम
इस तरह कि_दिन भर मरते रहे.

मैं तो मर नहीं सकता
मन को छोड़कर
और जी भी नहीं सकता
सिर्फ तन को लेकर.

फिर चल पड़ता हूँ
मन को तन से जोड़ने वाले
संबंधों की तलाश में.
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Thursday, March 4, 2010

shalendraupadhyay

पलायन
बहकते-बहकते याद आ जाती है
समय के परिवर्तन की परिभाषा
और-तब
बहकना छोड़कर
झकझोरता हूँ जालों को
परिभाषाओं के.

फिर मैं
निष्कर्ष पाता हूँ
कि परिभाषाओं का आपस में घुट जाना
बहकने के बराबर ही होता है.

फिर भी
यह तो चिन्हीत हो ही जाता है
कि नहीं है यह पलायन.

बस बहकता  ही तो है
शायद मैं संवर जाऊं !

Tuesday, March 2, 2010

shalendraupadhyay

हवा चली गई
और मैं बहता गया
मेरे घर के पास की
हवा में
कि-शायद
मैं हो जाऊं आभामंडल .

हवा रुक गई
मैं सिमट गया
फिर रह गई एक बात मेरे साथ
मेरा मन आभामण्डल ही रहा/
प्राकृत संकुचित हो गया.

सहसा पुनः चल पडी हवा;
मैं पड़ा रहा कमरे में
खुद के पास.

हवा चली गई
और
जीता रहा मैं
अपने वर्तमान में
समय के सानिंध्य में.