Friday, May 28, 2010

shalendraupadhyay

रिश्ता
उम्र, मंदिर के घण्टे और पुस्तकों के ढ़ेर
ले चले प्रेयसी के पास मुझे .

नहीं दे सका जिसे कोई सम्बोधन
केवल उल्लास , केवल परिहास
वही जो हो रही , सच; सखी .

मैं  भीगा-भीगा सा अपने आप में
उसके गीले बालों से छिटकी बूंदे
                      मुझ तक आ गई
                      और निढाल हो गया मैं .

प्रेयसी तुम ही तो थीं
कितनी पवित्र-सी !
तुम बनी रही किताब की रेशमी डोरी
मैने पढ़ डाले सारे पृष्ठ
लेकिन फिर भी नहीं संजो सका
सुन्दर, सपनीले, फूलों को .

मैं अनिमेष होऊं
होऊं एक चित्र और तुम फिर कहो
पगला गया है बुद्धू .
तुमने सीख लिया है
दीवारों का सजाना .
प्रकृति के पोरों से सनी पराई-पराई प्रीत
                      (ओ ,जो अपनी ही है )
तुम अब तक न सीख पाई .

एक संरचना , खिलाखिलालाने की !

हम कितनी ढीठ हैं
नहीं बोलते , जानते हुए भी_
                          शब्दों को
जिनमें हैं-समझ के साये
कोई चढ़ा जाए जल
और हो जाए अभिषेक
लेकिन हम हैं कि
विमुख हो अभिषेक से
छेड़ दें हर बार नया विषय .
ठहरी हुई झेंप का डर !
फिर आ चला !!

तुम  चलो, सजा लो अपने केश
में देख लूं नाचता मयूर !

यही है शायद
                   हमारा रिश्ता
यही है शायद
                   समझ का रिश्ता .