Tuesday, February 8, 2011

shalendraupadhyay

सलीब उठाने का साहस  
कन्धों पर है
मृत्यु का मार्ग !
ढो रहा हूँ उन्हीं कांधों को.
अपने आयाम, अपने विस्तार
छूट चले कहाँ, किस-किस से मिलें
श्मशान का माध्यम, हर तरफ धू-धू !

आज फिर अंकों में खारापन है
किसी मुलाक़ात की स्मृति
किसी मील पत्थर का संकेत
सभी तो हैं मृत्युमार्ग.   

मैं छोड़ चलूं
अपने ही कांधों को.
सलीब उठाने का साहस
हुआ जाता है स्पंदन से विमुख.
मैं मृत्यु हो जाऊं, श्मशान प्रिय ब्रह्म !
ओ ब्रह्म ! तुम फिर कहोगे-
सूरज उजास ही करता है
भविष्यदर्शन की अभिलाषा
भूत के परिणामों के बाद भी.

हर प्रणय की परिणति प्रयाण है / हो
मैं प्रयाण ही तो चाहूँ.
छालों से भरे तलवे
मुक्तिमार्ग में बाधक हो जाते हैं
और फिर से गिर जाता है सलीब.

मैं हो जाऊं अपना सलीब !
सलीब हो; मृत्यु नहीं मुक्ति मार्ग.
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