Thursday, February 18, 2010

shalendraupadhyay

लगातार
बहते जाना सीधे ही
नदी के पानी का
लगातार/
भागते जाना इधर-से-उधर
परिवेश की हवा का
लगातार/
फेंकते रहना अनवरत
सूरज का किरणों को
लगातार/
..................
कितना ही नीरस-सा क्यों न हो
ज़रूर ही रहता होगा
कोई आदत/रुचिकर चर्या
नदी का पानी,
हवा का रुख
और सूरज की किरणें
कैसे बन जाएँ
आदत/रुचिकर
हमारी छोटे-छोटे कदमों वाली
जरा सी ज़िंदगी में
बन जाएँ पर्याय शायद ही
अपने साथ रोज़  ही
घिसटती अँगुलियों लगी तलवों की आकृति को जबरन खींचकर.
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