Friday, March 19, 2010

shalendraupadhyay

मैं सन्दर्भ हूँ
तख्तियाँ मत टांगो
घर कहीं खो नहीं जाएगा.

हवा का रुख
सूरज की रोशनी
धरती की सतह
किसी की बपोइती  नहीं होती.

शब्दकोष फट जाएँ
और आँखों में उतर आए खून !
किसी अजनबी से मिलकर
बचपन का रोना याद जाए !!

मधुशाला से लौटी स्मृति
गली के आखिर में बना घर
गंदे कागज़ पर छपी इबारत
नहीं हो सकती मेरी परिभाषाएं.

मैं समय नहीं 
मैं स्थिर नहीं
मैं परम्परा नहीं
सन्दर्भ हूँ मैं.

अनचीन्हे आशियाने
नहीं होते किसी भी तरह के ठहराव !
पंछी-तुम न उड़ो
                        इस शहर से.
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