Sunday, March 21, 2010
shalendraupadhyay
निर्लिप्त
बहुत दिन हो गये
पतझड़ फिर भी चला है
सच, पता ही नहीं चला
कैसे चला गया वसंत
तुम्हारा भी नहीं.
शहर में कोई नहीं है
बहरा है शहर,कि गूंगा है शहर
कहीं नहीं है कोई सरसराहट/ स्पंदन
न जीने का कोई रंग !
मुझसे जुदा-जुदा सा है शहर
मैं फिर भी क्यों जीवंत ?
अपने चौबारे में हो कोई आवाज़
और सुन ना सकें हम.
कोई स्वरमंडल, कोई सितार
कोई शहनाई, कोई सारंगी
घर के कोने से गूँजे
और मैं सोया रहूँ/ निर्लिप्त.
बहुत बौराये हैं आम
मैं फिर भी दूर-दूर
कहीं से हो कोई पुकार
मैं फिर भी दूर-दूर.
तुम न लिखना
आह्ट की कविता/मरघट की बात
चौबारे की आवाज़/कमरे का सूनापन.
तुम निर्लिप्त ही रहो
एक तरफ/ अपने तंई .
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