Sunday, February 28, 2010
shalendraupadhyay
नामकरण
कहीं-न-कहीं
कभी-न-कभी
मिलती ही हैं दिशाएँ
फिर क्यों होता है
संकोच !
संकोच तिरोहित कर देता है
संभावनाओं की विपुलताओं को
होता है तब भी , क्यों
संकोच !!
न दें हम कोई परिभाषा
दिशाओं के दशावतारों को,
संवादों की सहयात्रा को.
परिभाषाओं की प्रक्रियाएं
करती है कोई नामकरण
ओर हो जाता है
विवादों का जन्म.
हम हों शिशु
बकरियों के पीछे भागते,
निम्बोलियाँ चाटते
कंचे उछालते
कि और भी सहज, सहजतर
कि भूल जाएँ किसी सीमा को
अपनी सीमाओं के भीतर-बाहर !
सच यही तो याद रहती हैं
वो स्मृतियाँ !
बातें होती थी बड़े-बूढों की
और हम थे निरे बच्चे
एक छोटे से शहर में
(महानगरीय ज़िन्दगी की कालोनी से भी छोटे)
और होती थी सम्पत्ति हमारी
बकरियां, कंचे ,आम्बागोटी , जंगल जलेबी
इमली के बीज , सतोलिया के पत्थर और राड
या फिर दाजी की डाट
भूरी काकी की तरेरती आँखे
इंजेक्शन वाले मामा की दहशत,
.................................!
बस यही सब तो
फिर सच तो यही है न
अब न रहे वो सब
और न ही हम बच्चे रहे.
बस टीस-भर बालपने की.
समय का हो स्पंदन , यों ही
और हो किसी अंजुमन का अहसास,
हम अकेले रखें , संवादों , संबोधनों के मायाजाल से
और हों_सहयात्री सहज संजीवन के
कि हो एक अनुष्ठान;
समस्त अनुष्ठानों के अंतस से.
ओ, सखी !यही हो;_बस न हो कोई नामकरण.
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