Saturday, March 20, 2010

shalendraupadhyay

मत ठहरो समय
लड़ाई अपनी हो कि सब की
सफ़र की नियति नहीं होती
एक उम्मीद-सी बनाते हैं
तन्हा सपनों में देखे दृश्य
साकार कहाँ होंगे_कौन जाने !

नहीं कहा मैंने कि नहीं जाऊंगा मईशागर
लेकिन हो सकता है ऐसा
                          समय से पहले कुछ भी तो नहीं
और कोई चाह ले_
                           समयपूर्व अंतिम प्रहसन.
क्षणभंगुर होना अपराध नहीं
परिणति क्षणभंगुर नहीं होती.

सौदागरों की भीड़ में किसे दें संबोधन
अपने अपने केश संवारने की होड़ में
सभी तो भूल गये/सौदे के भी नियम होते हैं.

अर्थ हो गये अपरिचय 
और सम्बन्धों का सार......निस्सार !
जड़ नहीं हो सकता मैं
हो जाऊं अपरिचय का बिम्ब.
उमस भरी दोपहरी से लौटकर
डूबता है सूरज , फिर उगता है सूरज
यह मृत्यु  तो नहीं.  

मैं , सूरज और मृत्यु
क्यों रचे जायें, क्यों रखें जायें
बंधी-बंधाई परिभाषाओं के आवरण में.
मैं व्याकरण भर होऊं
और मृत्यु; वाक्य-भर
सूरज रहे केवल कारक
मुझे कतई नहीं भाये .

सुबह से चलूँ मैं, विरामहीन मार्ग पर
किसी सांनिन्ध्य के सहारे 
और ठहर जाए समय !

मत ठहरो समय;
आओ उत्सर्ग को आयाम दें
एक भूली स्मृति को
एक संजीदा अहसास को
कि फिर जी उठे कोई
इस सफ़र को कोई अच्छा-सा नाम दें !
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मईशागर (माही सागर; दक्षिणी राजस्थान की मुख्य नदी)


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