Sunday, February 21, 2010

shalendraupadhyay

उम्मीद
उम्मीद -दर-उम्मीद आदत
मिलती है कभी-कभी
सूनेपन के गलियारे में
जब ढलने को आती है शाम
सूरज बूढ़ा हो चलता है
और
मनुष्य बौना हो चुकता है
आदत का दरवाज़ा  खटखटाते- खटखटाते .
मरते-जीते हैं
कविता के शब्द
लेकिन बनी रहती है
उम्मीद
केशों के श्वेत होने तक
गिनते रहने की
काया के कृशकाय होने तक
सहेजने  की.
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