Thursday, February 25, 2010

shalendraupadhyay

प्रहसन
राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत्य है !
गूंजता है, यही घोष
मेरी शिराओं में.

शिराएँ, जो सहज नहीं रहीं
शिराएँ, जो सहेजी नहीं गई
शिराएँ, जो अब जीवित भी नहीं
फिर भी हैं शिराएँ !

अपने होने का अहसास
अपने न होने की कल्पना
कितनी करीब है, कालशिराओं से
कि हर बार जी उठता हूँ, मर-मर कर !

अहम् ब्रह्मास्मि 
तज दिया यह चिंतन
कि समय नहीं है मेरा
मैं,जो जय-अजय का पुंज नहीं
जो यश-अपयश का सार नहीं
हूँ, केवल एक गति.

अस्तित्व का अटूट होना-नियति/
आह्ट-दर-आह्ट 
कि  मृत्यु पराजित हो जाती है
अपने पंजों के विस्तार के बाद भी
क्यों गति मेरी !

चलो, छेड़ें कोई और प्रहसन 
कि चहुँ ओर से हो कोई गूँज
छंट जाए मन का घटाघोप 
और
हो सखी के भीगे केशों का स्पर्श
कि खो जाएँ हथेली में बिछी रेखाएं.