Friday, February 12, 2010

shalendraupadhyay

समय
क्यों  रहता है कोई सत्य/सचमुच सत्य
यह सवाल मामूली नहीं है
फिर भी हो चला है मामूली/यही सवाल.
सवाल क्यों होता है
जब उत्तरदाता चुप हो
चुप्प ही रहना चाहते हों
धमनियाँ जिनकी जर्जर हों
उस युग के उन पुरूषों से सवाल है.

नपुंसकों की भीड़ में आदमी होना खतरनाक है
आदमी बेचारा होता है
सब-कुछ सहने को
सब-कुछ ओढने को
जैसे पहली बारिश  में मिट्टी की दीवार हो
और आखिर तक भी पत्थरों से आगे रहे.
कहीं कंदीलों की मद्धिम रोशनी में
कोई कविता लिखना चाहता है
और वह भी नहीं सुहाता
कुलबुले कड़ाके को;
कंदील बुझ-बुझ जाता है
अपने होने का अहसास-
अपने अस्तित्व का भान 
अपने तैंईं ही रहता है,
फिर चिंहुक उठते हैं
चाण्डाल झिंगुर/पिशाच प्रहसन
और कर देते हैं सब-कुछ तहस-नहस
किसी का अस्तित्व/किसी का सत्य/किसी का अपनापन.

वह मौन है
मरीत्युशैया से माहीघाट सरीखा!
रेत के धोरों की मानिंद
पत्थरों  की बस्ती में रहकर भी
नहीं हो सका पत्थर.
उसने कभी नहीं बनाये
संबंधों के समीकरण;
जोड़-बाकी,गुणा-हल
कुछ भी तो नहीं.
वह शिव ही रहा.
विषपान करके भी नहीं मरते हैं शिव
गूंजता है शिवत्व का डमरू
तनती हैं भ्रकुटियाँ
और भीग उठता है भू-मण्डल
कब होगा ताण्डव फिर से
कि खुल जाये त्रिनैत्र शिव का
यही तो है सवाल
जो है सबसे.

श्मशान में राख बचती है
चलो चलें श्मशान
मुट्ठी भर राख ले करें फिर कोई प्रण
उसी राख से जो है पवित्र (कहलाती है भस्मी पवित्र )
संहार करने का.
विनाश नहीं जिसकी गति
करें तर्पण युगों-युगों के लिए
ताकि देख ले समय.
मामूली नहीं है सवाल यह
शिव के ही सवाल हैं ये
जो हैं समय से
जो हैं सवालों के चक्रव्यूह से
और मूक दर्शकों से.
देखें; समय है सत्य
या कि सत्य से दूर समय.
**************************************************************************************


  
    

No comments: