Monday, February 22, 2010

shalendraupadhyay

काग़ज़ की नाव  
कैसे बनती हैं
कागज़ों की नावें ?
पता नहीं !
लेकिन पता है, मुझे
सदियों से / सदियों की बात
जब पुरखे भी मेरे हमशक्ल ही थे ;
कभी नहीं तैर पाई थीं
गंतव्य तक
कागज़ी नावें !
आखिर पता तो चले
कहाँ चला जाता है
माथे से टपका पसीना
बूंद , बूंद , बूंद..........
.........और न जाने कितनी ही बूंदे .
कभी-कभी
यह ज़रूर ही पता लगता है
कि बनेगा एक सागर
इन बूंदों   का
और डूब जायेंगें हम
लेकिन नहीं तैरेगी
कागज़ की नाव.
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