Tuesday, March 16, 2010

shalendraupadhyay

शव
दरवाज़े पर दस्तक होती है
जब भी जाता है कोई शव मेरी गली से
चलो-तुम्हारा भी काल आ गया.

मैं, शव, गली और दरवाज़ा !
क्यों जुड़े हैं आपस में इस तरह
सोचता रहा जाता हूँ देर रात तक
और  आ जाती है चुपके से नींद.
नींद तनाव को ढीला करती होगी/
                      होगी विश्राम देती
किसी और के लिए
बडबडाता हूँ मैं तो नींद में/
                 उन्नीन्दें सपनों की भरमार से.
और उचट जाती है नींद !

नींद में देखे सपने
क्या होते हैं किसी की घटनाएं ?
                 दोपहर भर का मायाजाल-?
मुझे नहीं पता.
मैं तो तनाव को ही भोगता हूँ
तुम्हारी स्मृति भी आती है बीच-बीच में
और मीठी हो जाती है नींद.
मैं, नींद और तुम्हारी स्मृति
सभी तो एक समीकरण हैं/
                  गणित के ही नहीं
जो नहीं हो सकते हल/
                     कभी-भी 
अकेले-अकेले.

सत्य में भी तुम्हें ही ढूँढता हूँ/
                 जब सब होता है सामान्य
ताकि शव देखते समय
मुझे देखो तुम
और कर सको हल, गणित
मेरे सपनों का, मेरे तनावों का.

नहीं झुठलाता सच को/
       .......................मैं;
क्योंकि एक शव ही हूँ मैं भी
                 .................शव
जीवित ही सही.
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