Monday, February 15, 2010

shalendraupadhyay

राख
सुबह का सूरज
हिने जा रहा जब अस्त
तभी कहा रूकते हुए उसे
गोधुली के उजाले ने;
वाह!तपा-तपा कर चले जा रहे हो.
सहज आश्चर्य से आतंकित सूरज ने
पिंड छुड़ाने को कहा;
नहीं-नहीं
वह तो मेरा उजाला था,प्रकाश था
अनजानेपन के भ्रम में हो तुम.....
परे हो वास्तविकता से,
टीम;दुपहरी
केवल परछाई को पसंद करती हो.
भयाक्रांत हो कर मुरझा रही हो
न तो तुम आदर्श हो
और न ही शाश्वत सत्य
तुम तो बस
देह विसर्जन के बाद बची राख हो,
यथार्थ तो में हूँ.
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